पाताल में धंसता हुआ शिवलिंग
पाताल में धंसता हुआ शिवलिंग
हिमालय की गोद में बसे एक एतिहासिक गांव में एक मंदिर में स्थापित शिवलिंग पाताल में धंसता जा रहा है। ऐसी मान्यता है कि पाताल में उस दिन यह शिवलिंग पूरी तरह समा जाएगा जिस दिन दुनिया में पापी अपनी हदों से गुजर जाएंगे। इसी मंदिर में पाताल जाने का एक गुप्त रास्ता भी है। जहां से पाताल होकर कैलाश पर्वत पहुंच कर ऋषिमुनि शिव तपस्या करने जाते थे।
कहां है यह मंदिर और कैसे शिवलिंग धंसता जा रहा है पाताल में ? हिमाचल प्रदेश की प्राकृतिक सुन्दरता से ओत-प्रोत काँगड़ा घाटी की गोद में हेरीटेज गाँव परागपुर से लगभग 8 किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ है आदिदेव भगवान शिव का अति प्राचीन श्री महाकालेश्वर मंदिर।
व्यास नदी के सोम्य जल प्रवाह से छूते हुए इस आकर्षक मंदिर का सम्बन्ध हिन्दू धर्म के दोनों महाकाव्यों रामायण ओर महाभारत से जोड़ा जाता है। इस मंदिर का एक बड़ा भाग अपने प्राचीन गुबंदों ओर आकर्षक मंदिर श्रीन्खला से इस महान स्थान की प्राचीनता दर्शाता है।
रावण इतना बड़ा शिव भक्त था कि हिमालय कि श्रृंखला के ऊपर केलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव कि आराधना किया करता था। पोराणिक कथाओं के अनुसार लंकापति रावण श्रावण मॉस और अन्य विशेष दिनों पर भगवान शिव की आराधना करने के लिए महाकालेश्वर धाम से ही जाता था।
रावण यहां से पाताल लोक से होते हुए सीधे कैलाश पर्वत पर आराधना में लीन हो जाता था। लोक मान्यतायों के अनुसार जैसे-जैसे पृथ्वी पर पाप बढ़ता जाएगा महाकालेश्वर का शिव लिंग पाताल लोक में स्थापित हो जायेगा। इस वक्त शिव लिंग भूगर्भ में स्थापित है ओर धीरे-धीरे पाताल में धंस रहा है। लंकापति रावण इस दिव्या स्थान पर समाधि लगा कर भगवान शिव की आराधना किया करता था।
वहीं दूसरी और इस धाम का सम्बंध महाभारत काल से भी है महाभारत काल में जब सम्राट धृतराष्ट्र को जनमानस के आगे झुकते हुए धर्मराज युधिष्ठर को हस्तिनापुर का युवराज घोषित करना पड़ा तो कौरवों के मामा शकुनी ने षड्यंत्र रचकर पांचों पांडव भाइयों सहित माता कुंती को आखेट के दौरान लाख से निर्मित भवन में ठहराया।
पूर्व नियोजित षडयंत्र के अनुसार मौका पाकर लाख से निर्मित भवन में आग लगा दी। लेकिन महात्मा विदुर ने पांडवों को जलने से बचा लिया। उसके बाद पांडव घुमते हुए जिस स्थान पर ठहरे उस स्थान में तीर्थस्थल बनते गए।
मान्यता के अनुसार पांडव इस दिव्या स्थान महाकालेश्वर में भी ठहरे थे और इस दौरान माता कुंती ने अपने पुत्रों से तीर्थ यात्रा पर जा कर गंगा स्नान करने कि इच्छा जाहिर कि पांडव उन दिनों अज्ञात वास पर थे वे तीर्थ यात्रा पर माता कुंती को नहीं भेज सकते थे।
इसलिए कुंती पुत्र अर्जुन ने दिव्या बाण चला कर एक नहीं पुरे पांच तीर्थों का जल यहाँ प्रवाहित किया था। इसलिए इस स्थान को पंचतीर्थी के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि जो भी यहां स्नान करता है सभी पापों से मुक्ति पता है।
इस स्थान को इंसान कीअंतिम धाम के रूप में भी जाना जाता है। यहां से स्वर्ग धाम को भी रास्ता है। ये स्थान धरातल में स्थापित हो जाएगा। पाताल लोक जाने के लिए यहीं से गुप्त रास्ता भी है। इस स्थान को आदिशक्ति श्री माता चिन्तपुरनी के महारुद्र के रूप से भी जाना जाता है।
पृथ्वी पर माता सती के जलते हुए शरीर के 52 टुकड़े गिरे थे और 52 शक्तिपीठ स्थापित हुए। हर शक्तिपीठ की चारों दिशाओं पर भगवान शिव के महारुद्र स्थापित हुए, महाकालेश्वर मां चिन्तपुरनी का पूर्व दिशा का महारुद्र है वहीं पश्चिम दिशा में महा नारायणी, उत्तर दिशा में महा शिव बाड़ी ओर दक्षिण दिशा में महा मुचकुंद स्थापित हैं।
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