Rasakhan
रसखान
राधे राधे
श्रीकृष्ण भक्त कवियों में रसखान का महत्वपूर्ण स्थान है.
इनका जन्म सोलहवीं शताब्दी में
दिल्ली के एक समृद्ध पठान परिवार में हुआ था. इनका बचपन
का नाम सैय्यद इब्राहीम था. इनका लालन पालन बड़े लाड़- प्यार
से हुआ. इनको अच्छी और उच्च कोटि की शिक्षा
दी गयी. रसखान को फारसी,
हिंदी एवं संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। इन्होंने
"श्रीमद्भागवत" का फ़ारसी में अनुवाद किया था.
कहा जाता है कि एक बार वे "श्रीमद्भागवत"-कथा समारोह में
पहुंचे. भगवान श्रीकृष्ण की बाल-
लीलाओं का सरस वर्णन सुनते-सुनते वे भाव विभोर हो गए.
इसके बाद श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला ने
उन पर ऐसा प्रभाव डाला कि वे श्रीकृष्ण के प्रेमी
'रसखान' बनकर रह गए. रसखान दिल्ली से
श्रीकृष्ण की लीलाभूमि वृन्दावन गए.
वहां गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के सत्संग ने उन्हें
परमप्रेमी भक्त बना दिया. उनका शिष्यत्व स्वीकार
कर उन्होंने अपना जीवन श्रीकृष्ण भक्ति तथा
काव्य रचना के लिए समर्पित कर दिया.
प्रसंग - एक बार रसखान गोवर्धन पर श्रीनाथ
जी के दर्शन के लिए मंदिर में जाने लगे. ये पठान थे इसलिए
अपने साथ "सलवार कुर्ता" ले गए. कि मे ये पोशाक श्री नाथ
जी को अर्पण करूँगा. द्वारपाल के कान में किसी ने
कहा कि यह मुसलमान है. इसके प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाएगा.
वह यह नहीं समझ पाया कि मुसलमान परिवार में जन्म लेने के
बावजूद यह श्रीकृष्ण भक्ति में पककर रसखान बन चुका है.
द्वारपाल ने मंदिर में नहीं जाने दिया. वे तीन दिन तक
मंदिर के द्वार पर भूखे-प्यासे पड़े रहे और कृष्ण भक्ति के पद गाते रहे.
इस तरह अपने भक्त का अपमान देखकर श्रीनाथ
जी के नेत्र लाल हो उठे थे. और जैसे ही
पुजारी जी ने मंदिर का पट खोला तो देखते है कि
श्री नाथ जी पोशाक की जगह रस
खान का सलवार कुर्ता पहने खड़े है और उन्होंने रसखान को गले लगाया
और दर्शन दिए.
रसखान ने ब्रज भाषा में अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण
की लीलाओं का इतना सुबोध और सरस वर्णन किया
है कि बड़े-बड़े धर्माचार्य भी उनके पदों को दोहराते हुए
भावविभोर हो उठते हैं. भक्तकवि रसखान ने जहाँ अपने इष्टदेव
श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन किया है,
वहीं उनकी ललित लीलाओं
की विभिन्न झाकियाँ प्रस्तुत कर भक्तजनों को अनूठे प्रेम रस में
डुबो देने में वे पूर्ण सक्षम रहे हैं. उनके लिखे कवित्त और सवैये
'सुजान रसखान' ग्रंथ में संग्रहीत हैं. 'प्रेमवाटिका'
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